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रवीन्द्र-कविता-कानन
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होगा कि तेरे चारों ओर जीवन की लहरें उथल-पुथल मचाती हुई बही चली जा रही हैं। जब हवा की हिलोरों में पल्लव मर्मर-स्वर से मृदु तान अलापने लगेंगे और न जाने किस उच्छ्वास के आवेश में पक्षी गाने लगेंगे—नदियों में कितनी ही लहरें उठेगी और कल-कल स्वर से अपनी रागिनी गायेंगी—एक आकाश से दूसरे आकाश में केवल हर्ष का कोलाहल उमड़ता रहेगा—कहीं हास्य की रेखाएँ खिचेंगी—कहीं क्रीड़ा-कौतुक होगा—कहीं सुख के संगीत उठेंगे—तू उनके बीच में विह्वल हो कर बैठा हुआ अपने आकुल प्राणों से, आँखें मूँद कर, उस अचेतन सुख में अपनी चेतना खो कर सब का मधु पीता रहेगा।)

अपने हृदय के साथ दृश्य मिलाने के लिये महाकवि सम्पूर्ण विश्व को इन पंक्तियों द्वारा निमन्त्रण भेज रहे हैं। वे मधुकर के साथ उसकी उपमा दे कर मधुकर की तरह उसे भी सम्पूर्ण पुष्प प्रकृति का आनन्द लूटने के लिये बुला रहे हैं। यह हृदय कितना विस्तीर्ण हो गया है, इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है। हृदय का विस्तार सम्पूर्ण विश्व-प्रकृति तक फैल जाता है। यह इतना बड़ा विस्तार है कि इसका वर्णन महाकवि के ही मुख से सुनिये—

'बारेक चेये देखो आमार मुख पाने,
उठेछे माथा मोर मेधेर माझ खाने।
आपनि आसि ऊषा शियरे बसि धीरे,
अरुण कर दिये मुकुट देन शिरे।
निजेर गला होते किरण-माला खुलि,
दितेछे रवि-देव आमार गले तुलि।
धुलिर धलि आमि रयेछि धूलि परे
जेनेछि भाई बोले जगत चराचरे।"

(जरा मेरे मुँह की ओर भी देखो। देखो—मेरा मस्तक मेघो के बीच मे जा कर लगा है। वहाँ ऊषा आप आ कर धीरे-धीरे मेरे सिरहाने पर बैठ कर अरुण करों का मुकुट मेरे सिर पर रख रही है। अपने गले से किरणों की माला खोल कर भगवान भास्कर उसे मेरे गले में डाल रहे है। यों तो मैं घूल की धूल हूँ—धूल ही पर रहता भी हूँ, परन्तु विश्व और चराचर के दर्शन मुझे अपने भाई के रूप में हुए है।)

इन पंक्तियों में कवि के स्वरूप का पूर्ण परिचय मिल जाता है। उसका