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रवीन्द्र-कविता-कानन
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निःस्वार्थ। रवीन्द्रनाथ अपने भाव की नि:स्वार्थ प्रेरणा से संसार को जागरण का संगीत सुन रहे हैं। यदि कुछ और तह तक पहुँचकर कवि की इस पुकार की छानबीन की जाय तो हम देखेंगे, यह कवि की नहीं, किन्तु उसी प्रतिभा को पुकार है, उसी दैवी-शक्ति की अभ्युत्थान-ध्वनि है, जिसके अभिर्भाव से कवि का हृदय उद्भासित हो उठा था। इस ध्वनि से जन-समुदाय का कोई अनर्थ नहीं हो सकता। इसमें भी उतेजना है, किन्तु क्षणिक नहीं। यह निर्जीवों को जिला देने के लिये, पद-दलितों में उत्साह की आग भड़काने के लिये, नग्न हृदयों को आशा की सुनहरी छटा दिखाने के लिये, सदा ही ज्यों की त्यों बनी रहेगी। यह अपने आनन्द की ध्वनि है, किन्तु इसमें दूसरे भी अपना प्रतिबिम्ब देख लेते हैं। यह व्यक्ति और देश के लिये तो समीम है किन्तु विश्व के लिये निस्सीम। एक देशिक भावों का मनुष्य इसमें एकदेशिक भाव की सुरीली किन्तु ओजस्विनी रागिनी पाता है और वह उसी के भावों में मस्त हो जाता है, और व्यापक विश्व-भावों का मनुष्य इसमें व्यक्ति की वह असीमता देखता है जिसकी समाप्ति, जीवन की तो बात ही क्या, युग और युगान्तर भी नहीं कर सकते। ससीम और असीम, एकदेशिक और व्यापक, ये दोनों ही भाव महाकवि की इस उक्ति में पाये जाते हैं। इससे देश का भी कल्याण होता है और विश्व का भी। यही इसकी विचित्रता है और यही इसका सौन्दर्य—अनूठापन। इन पंक्तियों के पाठ से पहले इसके क्रान्तिमूलक अतएव आसुरी होने का भ्रम हो जाता है; क्योंकि, 'लहरीर पर लहरी तुलिया, आघातेर पर आघात कर' आदि पंक्तियों में शक्ति की मात्रा इतनी है कि स्वभावत: इनके क्रान्तिभावमयी होने का विश्वास हो जाता है। परन्तु नहीं, कविता के पाठ से जिस स्नायविक उत्तेजना के कारण ऐसा होता है, वह उत्तेजना पढ़ने वाले ही की दुर्बलता है, वह कविता का क्रांतिकारी आसुरी भाव नहीं। हमारा मतलब क्रान्ति से यहाँ आसुरी भाव को ले कर है। यदि इस क्रान्ति को कोई दैवी-क्रांति कहे और इसका उपयोग मानवीय दुर्बलता के विरोध में करने के लिये तैयार हो, तो हम इसके मान लेने में द्विसक्ति भी नहीं करेंगे। हम स्वयं यह मानते हैं कि किस कविता का प्रणयन दैवी-शक्ति के द्वारा हुआ है, उसक उपयोग मानवीय दुर्बलताओं के विरोध में स्वच्छन्दतापूर्वक किया जा सकता है, और उससे दैवी भावनाओं को ही प्रोत्साहन मिलता है, न कि किसी आसुरी भावना को।