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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

के साथ व्यवहार करना पड़ा। इससे जीवन को भीतरी अवस्था, उसके सुख और दुःख के चित्र वे अच्छी तरह देख सके। साहित्य का एक अंग और जोरदार हो गया।

जमींदारी के कार्य में रवीन्द्रनाथ ने अच्छी योग्यता दिखायी। कार्य में चारुता आ गयी और जमीदारी पहले से सुधर गयी। रवीन्द्रनाथ ने सिद्ध कर से दिया कि प्रबन्ध कार्यों में भी वे दक्ष हैं। उन्होंने कृषि की उन्नति की। कितने ही उपाय पैदावार बढ़ाने के निकाले। लोगों को उनसे सन्तोष हुआ।

इस समय रवीन्द्रनाथ सुखी थे। उनकी दिन-चर्या भी अच्छी थी। उनके थे लेखों में सूचित है, पद्मा की गोद उन्हें बहुत पसन्द आयी। 'छिन्न-पत्र' के नाम से उनकी कुछ गद्य-पंक्तियाँ और 'चित्रा' इसी समय लिखी गयी थी। चित्रा का स्थान रवीन्द्रनाथ की कविताओं में बहुत ऊँचा है। लेकिन क्रमशः उनकी कविता उन्नति करती गयी। इसलिये कहना पड़ता है कि बाद की कविताएँ और अच्छी हैं। वैसे तो जीवन के अन्तिम दिनों में रवीन्द्रनाथ ने जो कविताएँ लिखी हैं, हमारी समझ में उनका स्थान और ऊँचा है। सौन्दर्य की इतनी मनोहर सृष्टि बहुत कम मिला करती है।

इन्हीं दिनों चित्रांगदा नाटक निकला। रवीन्द्रनाथ के नाटकों में चित्रांगद को जोड़ का दूसरा नाटक नहीं। यह सौन्दर्य के विचार से कहा जा रहा है। चित्रांगदा पर प्रतिकूल समालोचना बहुत हो चुकी है। बगाल के प्रसिद्ध नाटककार डी० एल० राय महाशय की एक तीव आलोचना निकल चुकी है। उन्होंने आदर्श का पक्ष लिया था। चित्रांगदा के सौन्दर्य को आदर्श भ्रष्ट करने वाला करार देते हुए उन्होने समालोचना समाप्त की है। परन्तु रवीन्द्रनाथ की कवित्व-शक्ति की उन्होने मुक्तहस्त होकर प्रशंसा की है। यह सच है कि चित्रांगदा पौराणिक आख्यान के आधार पर लिखी गयी है, इसलिये पौराणिक भावों की रक्षा होनी चाहिये थी, अर्जुन और चित्रांगदा के विषय-वासना की ओर जितना ध्यान रवीन्द्रनाथ ने दिया है, उतना उनकी शुद्धि और सन्तोष पर नहीं दिया। डी० एल० राय का यह विवाद आदर्श की दृष्टि से बुरा न था। परन्तु कुछ भी हो, कवि स्वतन्त्र है। उस पर ये दोष नहीं मढ़े जा सकते। दमयन्ती जैसी सती के सम्बन्ध पर लिखते हुए जैसा नग्न चित्र श्रीहर्ष ने खींचा है, वह उनके नैषध में प्रत्यक्ष कीजिये।

कुछ लोग चित्रांगदा को नाटक न कह कर उत्कृष्ट कविता कहते हैं।