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रवीन्द्र-कविता-कानन
 


१८८७ ई० से १०९५ ई० तक रवीन्द्रनाथ का साहित्यिक कार्य यौवन की विकसित अवस्था का कार्य है। इस समय उन्हें कोई अशांति नही, घात-प्रतिघातों से चित्त को क्षोभ नहीं होता, सहनशीलता काफी आ गई है और सौंदर्य को पराकष्ठा तक पहुँचाने की कुशलता भी हासिल हो गयी। भाषा के पंख बढ़ गये हैं, भावना असीम-स्वर्ग की ओर इच्छानुसार स्वछन्द भाव से उड़ सकती है।

१८८७ ई० मे रवीन्द्रनाथ गाजीपुर गये। कल्पना की सृदुल गोद का सुकुमार युवक-कवि, हरे भरे दृश्यो से घिरा हुआ, अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये दत्ताचत्त हो रहा है। 'मानसी' क अधिकांश पद्य यही लिख गये थे। 'मानसी' में रवीन्द्रनाथ कविता की नन्दन-भूमि में है—उसके एकमात्र प्रियतम कवि।

'मानसी' मे, जहाँ, 'भैरवी' जैसी भावात्मक उत्कृष्ट कविताएँ है, वहाँ, 'सूरदासेर प्राथना' और 'गुरु गोविन्द' जैसी ऐतिहासिक, शांति-रस से भरे हुए, उच्चकोटि क शिक्षाप्रद पद्य भी है। 'बग-वीर' की तरह हास्य-रस की कविताएँ भी कई है। 'मानसी' पाठको की मानसी ही है।

'मानसी के बाद' 'राजा ओ रानी' निकला। यह नाटक रवीन्द्रनाथ के उच्चकोटि के नाटका में है।

गाजीपुर छोड़न के बाद रवीन्द्रनाथ की इच्छा हुई कि ग्रेण्ड ट्रंक रोड से, बैलगाड़ी पर सवार हो, पेशावर से बगाल तक का भ्रमण करें। लेकिन उनकी इच्छा पूरी नहीं हो सकी। उनके पिता, महर्षि देवेन्द्रनाथ ने उन्हे आज्ञा दी, 'कुछ काम भी करो'। सियालदा में जमीदारी का काम था। पहले तो काम के नाम से रवीन्द्रनाथ कुछ डरे, परन्तु पीछे सम्मति दे दी। जमीदारी सभालने से पहले दोबारा कुछ काल के लिये वे विलायत हो आये। अब की योरप भर में पर्यटन किया और योरोपियन और जर्मनी संगीत सीख कर लौटे। उनकी यात्रा का विवरण 'योरोपियन यात्री की डायरी' के नाम से निकल चुका है।

लौट कर सियालदा में जमीदारी सँभालने लगे। इस समय रवीन्द्रनाथ की उम्र तीस साल की थी। तमाम सभ्य संसार के लोगों से मिल कर भारत के संबंध में उन्होने अपना स्वतन्त्र विचार निश्चय कर लिया था। वे समझ गये थे कि देश को शिक्षित करने के लिये किस उपाय का अवलम्ब उचित होगा। वर्तमान शिक्षा देश को ज्ञान के आधार पर स्थित नहीं रख सकती। वह शक्ति इसमें नहीं।