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रवीन्द्र-कविता-कानन
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का शौक पूरा कर लेना पड़ता था। इस तरह के स्लीपरों से रवीन्द्रनाथ की इतनी सहानुभूति थी कि जहाँ उनके पैर रहते वहाँ जूतों की पहुँच न होती थी।

नौकरों के प्रभाव का एक उदाहरण लीजिये। इनके यहाँ एक नौकर खुलना जिले का रहता था। नाम श्यामा था। था भी श्यामा ही। एक रोज बालक रवीन्द्रनाथ को कमरे में बैठा कर चारो ओर से उसने लकीर खीच दी और गम्भीर हो कर कहा, इसके बाहर पैर बढ़ाया नहीं कि आफत का पहाड़ टूटा। सीता की कथा रवीन्द्रनाथ पढ़ चुके थे। वे नौकर की बात पर अविश्वास न कर सके। वे चुपचाप वही बैठे रहे। इस तरह कई घण्टे उन्हें बैठे रहना पड़ा। झरोखे से अपने घर के पक्के घाट पर लोगों की भीड़, बगीचे में चिड़ियों की चहक, पूर्व ओर की चहारदीवारी के पास का चीनावट, पड़ोसियों का आना, नहाना, नहाने के प्रकार भेद, ये सब दृश्य बालक रवीन्द्रनाथ को उस कैद में भी धैर्य और आनन्द देने वाले उनके परम प्रिय सहचर थे। उनके बालपन का अधिकांश समय प्रकृति के दूसरे छोर की मोहिनी सृष्टि के साथ उन्हें मैत्री के बन्धन में बाँध कर न जाने किस अलक्षित प्रेरणा से उनके भावी जीवन के आवश्यक अंग का सुधार कर रहा था। घर की प्रकृति के साथ रवीन्द्रनाथ का एक बड़ा ही मधुर परिचय हो गया था। उनके किशोर समय के आते ही यह प्रकृति के सुकुमार कविता के रूप में प्रगट हुआ।

प्रकृति दर्शन की कितनी ही कथाएँ बालक रवीन्द्रनाथ की जीवनी में मिलती हैं। विस्तार भय से उनका उल्लेख हम न करेंगे। संक्षेप में इतना कह देना बहुत होगा कि जीवन की इस अवस्था को देख कर कवि के भावी जीवन का कुछ अनुमान हो जाता है।

नार्मल स्कूल के एक शिक्षक रवीन्द्रनाथ को घर पर भी पढ़ाते थे। ये नीलकमल घोषाल थे। स्कूल की अपेक्षा घर पर रवीन्द्रनाथ को अधिक पढ़ना पडता था। सुबह को लँगोट कम कर एक काने पहलवान से ये जोर करते थे। कुछ ठंडे हो कर, कुर्ता पहन, पदार्थ-विद्या, मेघनाद-वध काव्य, ज्यामिति, गणित, इतिहास, भूगोल आदि अनेक विषयों का अभ्यास करना पड़ता था। फिर स्कूल से लौट कर ड्राइंग और जिमनास्टिक सीखते थे। रविवार को गाना सिखलाया जाता था। सीतानाथ दत्त महाशय मन्त्रों के द्वारा कभी-कभी पदार्थ-विज्ञान की शिक्षा देते थे। कैम्बल मेडिकल स्कूल के एक विद्यार्थी से अस्थि-विद्या की