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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

समय तक मौजूद थे।

देश की तात्कालिक परिस्थिति जैसी थी, ईसाई धर्म जिस बेग से बंगाल में धावा मार रहा था, सनातनर्मियों की संकीर्णता जिस तरह क्षुद्र होती जा रही थी, यश प्राप्ति की प्यास जिस तरह बंगालियों को पश्चिम की ओर बढ़ा रही थी, उन कारणों से उस समय एक ऐसे धर्म का उद्भव होना आवश्यक था जो बाहरी देशों से लौटे हुए हिन्दुओं को भारतीयता के घेरे में रख कर उनमें पारस्परिक ऐक्य और सहानुभूति बनाये रह सके—जाति-भिन्नता में भी एकता के बन्धनों को दृढ़ कर सके। दूसरी दृष्टि से, जिस तरह पण्डितों की संकीर्णता सक्रिय थी, उसी तरह देश में उदारता की एक प्रतिक्रिया होना आवश्यक हो गया था, यह अवश्यम्भावी था और प्राकृतिक भी था।

पहले पहल राजा राममोहन राय के मस्तिष्क में ब्राह्म-समाज की स्थापना के भाव पैदा हुए थे। परन्तु ब्राह्म-समाज को स्थायी रूप वे नहीं दे सके। इससे पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी। इसे स्थाई रूप मिला, रवीन्द्रनाथ के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ के द्वारा। जिस समय देवेन्द्रनाथ के हृदय में अद्वैत ब्रह्म की उपासना की आशा दूसरों की दृष्टि से बच कर पुष्ट हो रही थी, उस समय उनके यहाँ शालिग्राम की पूजा बड़े धूमधाम से की जाती थी। परन्तु, जिस बीज का अंकुर उग चुका था, उसका फलीभूत होना स्वाभाविक था। अस्तु १८३८ ई० में महर्षि ने तत्वरंजनी नाम की एक सभा की प्रतिष्ठा की। इसकी स्थापना अपने घर पर ही की थी। इसके दूसरे अधिवेशन के समय विद्यावागीश रामचन्द्र को उन्होने बुलाया। विद्यावागीश महोदय ने इस सभा का नाम तत्व-रंजिनी से बदल कर तत्वबोधिनी रखा। ८४२ ई० में यह सभा निर्जीव ब्रह्म-समाज के साथ मिला दी गयी। इसी साल महर्षि देवेन्द्रनाथ भी ब्राह्म-समाजी हो गये। इसमें नया जीवन डालने और कुछ दूसरे कारण से देवेन्द्रनाथ महर्षि कहलाये। उनके सुपुत्रों ने इस कार्य में उनकी सहायता की। किसी समय रवीन्द्रनाथ ने बड़ी योग्यता और तत्परता के साथ पिता के इस कार्य का संचालन किया था।

रवीन्द्रनाथ का बालपन सुख की कल्पनाओं और सरल केलियों के भीतर संसार का प्रथम परिचय प्राप्त कर मधुर और बड़ा ही सुहावना हो रहा था। रवीन्द्रनाथ उच्च वंश के लड़के थे। उन्हें कोई अभाव न था। परन्तु उन्हें बालपन में दीनता की गोद पर सहानुभूति की प्रार्थना करते हुए देख कर हृदय