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रवीन्द्र-कविता-कानन
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प्रवाह को पकड़ रखने की मैं वृथा ही चेष्टा किया करता हूँ, एक-एक तरंग आती है और मेरे हृदय को धक्का मार कर न जाने कहाँ चली जाती है!॥३॥ जो कुछ खो जाता है और जो कुछ रह जाता है, वे सब अगर मैं तुम्हें सौंप दूँ, तो इनका क्षय न हो; सब तुम्हारी महान् महिमा में जगते रहें ॥४॥ तुममें कितने ही सूर्य और कितने ही चन्द्र हैं, कभी एक कण या परमाणु भी नहीं खो जाता; क्या मेरी खोई हुई क्षुद्र चीजें तुम्हारे आश्रय में रहेंगी? ॥५॥"

महाकवि रवीन्द्रनाथ के भक्ति-संगीत की बङ्गला में बड़ी तारीफ है। बड़े-बड़े समालोचक तो यहाँ तक कहते हैं कि संगीत-काव्य लिख कर अपने इष्ट देव को सन्तुष्ट करने वाले बंगाल के प्राचीन कवियों में रवीन्द्रनाथ का स्थान बहुत ऊँचा है, कितने ही भक्त कवियों के संगीत तो बिलकुल रूखे हैं, उनमें सत्य चाहे जितना भरा हो—दर्शन की अकाटय युक्ति से उनकी लड़ियों में चाहे जितनी मजबूती ले आई गई हो, परन्तु हृदय को हरने वाली कविता की उसमें कहीं बू भी नहीं है। रवीन्द्रनाथ की लाड़याँ भक्ति के अमर सरोवर में कविता की अमृत लहरियाँ हैं। हृदय की जो भाषा अपनी वेदना से उबल कर अपने इष्ट देव के पास पहुँचती है, उसमें एक दूसरी ही आकर्षण शक्ति रहती है। रवीन्द्रनाथ हृदय की भाषा के नायक हैं। उनकी आवेदन भरी भाषा जिस ढंग ने निकलती है, जिस भाव से भर कर इष्टदेव के मंदिर द्वार पर खड़ी होती है, उसमें एक सच्चे हृदय के साफ बिम्ब के सिवा कुछ नहीं देख पड़ता।

इस संगीत के भी वही चित्र हैं जो रवीन्द्रनाथ कहते हैं—

"आमि सकल गरब दूर करि दिब
तोमार गरब छाडिब ना।"

उनके इस निवेदन में हर एक पाठक की अन्तारात्मा उनके हृदय का स्वच्छ मुकुर और उसमें खुले हुए निष्काम भाव को प्रत्यक्ष करती है।" सब प्रकार का गर्व छोड़ दूँगा, परन्तु तुम्हारा गर्व मुझसे न छोड़ा जायगा। इस उक्ति में इष्ट के प्रति—भक्ति की कितनी ममत्वमयी प्रीति है!—पढ़ने वाले का हृदय बरबस उसे अपनापन दे डालता है । रवीन्द्रनाथ ईश्वर की कृपादृष्टि स्वयं नहीं ले लेना चाहते, वे दूसरों को उनकी कृपा का पात्र बनाना चाहते हैं। इसलिये वे कहते है—"जिस दिन मुझे तुम्हारी कृपा मिलेगी, उस दिन और को भी पुकार कर तुम्हारी कृपा का समाचार सुना दूँगा।" इस