पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१४६

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१४२ रवीन्द्र-कविसा-कानन !॥३॥ आजि मधुर बातासे, हृदय उदासे, रहे ना आवासे मन हाय कोन कुसुमेर आशे, कोन फूल वासे, सुनील अकाशे मन धाय ।।४।। आजि के जेनो गो नाई, ए प्रभाते ताई जीवन विफल हय गो॥५॥ ताइ चारी दिके चाय, मन केंदे गाय, "ए नहे, ए नहे, नय गो !" ॥६॥ कोन स्वप्ननेर देशे, आछे एलो केशे, कोन छायामयी अमराय ! ॥७॥ आजि कोन उपवने, विरह-वेदने आमारी कारणे केंदे जाय ।।८।। आमि यदि गाइ गान, अधिर पराण, से गान शुनाब कारे आर ॥६॥ आमी यदि गांथि माला, लये फुल-डाला, काहारे पराव फुल हार ॥१०॥ आमी आमार ए प्राण यदि करि दान दिबो प्राण तबे कार पाय ॥११॥ भय हय मने पाछे अजतने मने मने केहो व्यथा पाय ॥१२॥ अर्थ :-"आज शरदऋतु के सूर्योदय में-प्रभात के स्वप्नकाल में जी न जाने क्या चाहता है ? ॥१।। उस शेफालिका (हरसिंगार) की शाखा पर बैठे हुए विहङ्ग और विहङ्गी क्या जाने क्या कह-कह कर एक दूसरे को पुकारते हैं और उनके गाने का अर्थ भी क्या है ? ॥२॥ आज की मधुर वायु प्राणों को उदास कर देती है--हाय !-घर मे मन भी नहीं लगता ! ॥३॥ न जाने किस फूल की आशा से किस सुगन्ध के लिये मन नीले आसमान की ओर बढ़ रहा है ! ॥४॥ आज-न जाने वह कौन-एक अपना मनुष्य मानों नहीं है, इसी- लिये इस प्रभातकाल में मेरा जीवन विफल हो रहा है ! ॥५॥ इसीलिये मन चारों ओर हेरता है, और जो कुछ भी उसकी दृष्टि में आता है, उसे देख कर ध्यथा के शब्दों में गाते हुए कहता है---'यह वह नहीं है-वह (कदापि) नहीं!" सदा