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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

तक पहुँचाने के लिए, चल कर जगह-जगह पर थकी बैठी हुई जाति को कविता और संगीत के द्वारा आश्वासन और उत्साह देने के लिए उसका अमर कवि आया, प्रकृति ने प्रकृति का अभाव पूरर कर दिया। ये सौभाग्यमान पुरुष बङ्गाल के जातीय महाकवि श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से ले कर बीसवीं शताब्दी के पूर्ण प्रथम चरण तक तथा अब तक रवीन्द्रनाथ कविता साहित्य में संसार के सर्वश्रेष्ठ महाकवि हैं। इनके छन्द अनगिनित आवर्तो और स्वर-हिलोरों की मधुर अगणित थपकियों में पूर्ण थे और पश्चिम की पथरोली चट्टाने ठह कर नष्ट हो गई—विषमता की जगह समता की सृष्टि हुई। प्रतिभा के प्रासाद में संसार ने रवीन्द्रनाथ को सर्वोच्च स्थान दिया। देखा गया कि एक रवीन्द्रनाथ में बड़े-बड़े कितने ही महाकवियों के गुण मौजूद हैं। परन्तु इस बीसवीं सदी में जिसे प्राप्त कर संसार बसन्तोत्सव मना रहा है, वह कभी विकसित, पल्लवित, उछ्वसित, मुकुलित, कुसुमित, सुरभित और फलित होने से पहले अंकुरित दशा में था।

अकुर को देख कर उसके भविष्य-विस्तार के सम्बन्ध में अनुमान लगाना निरर्थक होता है। क्योंकि प्रायः सब अंकुर एक ही तरह के होते हैं। उनमें होनहार कौन है और कौन नहीं, यह बतलाना जरा मुश्किल है। इसी तरह, वर्तमान के महाकवि को उनके बालपन की क्रीड़ाएँ देख कर पहचान लेना, उनके भविष्य के सम्बन्ध में सार्थक कल्पना करना, असम्भव है। क्योंकि उनके बालपन में कोई ऐसी विचित्रता नहीं मिलती, जिससे यौवन-काल की महत्ता सूचित हो। जो लोग वर्तमान के साथ अतीत की शृंखला जोड़ते हैं, वे वर्तमान वे को देख कर ही उसके अनुकूल अतीत की युक्तियाँ रखते हैं। रवीन्द्रनाथ के बाल्य की अह कृश नदी—उसका वह छोटा सा तट, सब नदियों की तरह पानी की क्षुद्र चचलता, आनन्द-आवर्त्त, गीत और नृत्य; यह सब देख कर उनके भविष्य-विस्तार की कल्पना कर लेना सरासर दुस्साहस है।

जिस समय रवीन्द्रनाथ अपने बालपन के क्रीड़ा-भवन में केलियों की कच्ची दीवारे उठाने और ढहाने में जीवन की सार्थकता पूरी कर रहे थे, अपना आवश्यक प्रथम अभिनय खेल रहे थे, वह बङ्ग-साहित्य का निरा बाल्यकाल ही न था, न वह किशोर और यौवन का चुम्बन-स्थल था, वह किशोरता की मध्यस्थ अवस्था थी। बाल्य डूब रहा था और सौंदर्य में एक खिंचाव रह-रह कर आ