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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

अपनी भाषा के संगीत का प्रेम एक तरह छूट जाता है।

हिन्दी संगीत की योग्यता पर अब इस समय अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यहाँ एक बात बिना कहे नहीं रहा जाता । पश्चिम के संगीतज्ञों को भारत के संगीत से अभी तक विशेष प्रेम नहीं हुआ है। भारत के कुछ नामी उस्ताद योरप हो आये हैं, परन्तु उनके वाद्य का प्रभाव अभी वहाँ उतना नहीं पड़ा जितने की आशा की जाती है। प्रभाव न पड़ने के मुख्य दो कारण हैं। पहला यह कि भारत के रागों और रागिनियों को वे समझ नहीं सकते,—इनसे उनके हृदय में न तो किसी भाव का उद्रेक होता है, न कोई रस संचार; दूसरी बात यह है—तान मुरकी में वहाँ वालों को इतना अधिक स्त्रीत्व दिखलाई पड़ता है कि वे वीर जातियों के वंशज इसका सहन नहीं कर सकते; यहाँ को नृत्यकला को भी वे लोग इसी दृष्टि से देखते हैं, अन्यथा यहाँ के नृत्य और संगीत से अपने साहित्य में कुछ लेने की चेष्टा करते। संगीत की समालोचना में में योरप वाले वास्तव में भूल करते हैं, और कुछ अंशों में हमारी भी भूल है। हमारे यहाँ भैरव, मालकोस, दीपक, आदि रागों के जैसे स्वरूप चित्रित किये गये हैं, उन्हें देख कर कोई यह नहीं कह सकेगा कि इनमें स्त्रीत्व है, भैरव में तो पुरुषत्व का विकास इतना अधिक करके दिखाया गया है कि संसार मे उस तरह का मस्त और दुनिया को तुच्छ समझने वाला पुरुष संसार की किसी भी जाति में न रहा होगा। भैरव-राग के अलापने पर वैसा ही भाव हृदय में पैदा हो जाता है। हमारे यहाँ, ध्रुपद-धम्मार आदि तालों में स्त्रीत्व का तो कह निशान भी नहीं है। इनमें गाते समय गवैये को हमेशा ध्यान रखना पड़ता है। कि कहीं ध्रुपद गाते हुए स्वर में कम्पन न हो जाय—यानी आवाज सदा भरी हुई और सीधी निकलती रहे, उसके काँपने से स्त्रीत्व के आ जाने का भय है। जो लोग इसका निर्वाह नहीं कर सकते, वे चूकते हैं। हमारे यहाँ मृदङ्ग के बोल भी पुरुषत्व के उद्दीपक हैं। जबसे राग-रागिनियों की खिचड़ी पकी, गजल-युग आया, तब से संगीत में स्त्रीत्व का प्रभाव बढ़ा है।

शब्द-शिल्पी हो कर संगीत को कला के शीर्षस्थान तक ले जाने वाले, स्वर की लड़ी में भाव भरे उत्तमोत्तम शब्द पिरोने वाले, हर एक रस और हर एक रागिनी में कविता और संगीत कला के दो पृथक चित्रों में समान तूलिका संचालन करने वाले—बराबर रंग चढ़ाने वाले, एक ओर शब्दों द्वारा—दूसरी ओर रागिनी की खुली मूर्ति खींच कर,—आवश्यकतानुसार शृंगार-करुणा-