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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

छन्द-छन्द पर सिन्धु में तरंगें नाच उठती हैं,—शस्य के शीर्षों में (बालियों में)—घरा का अंचल काँप उठता है,—तुम्हारे उन्नत उरोजों पर शोभा देने वाले हार से छूट कर आकाश में तारे टूट गिरते हैं,—एकाएक पुरुषों के हृदय में चित्त अपने को भूल जाता है,—नस-नस में खून की धारा बह चलती है! (१३)। ओ अपने को न सँभाल सकने वाली! एकाएक दिगन्त में तेरी मेखला टूट गिरती है (१४)।

६—ऐ भुवनमोहिनी ऊर्वशी! स्वर्ग के उदयाचल में तुम मूर्तिमति ऊषा हो (१५)। तुम्हारे देह की तनुता (नजाकत) संसार के आँसुओं की सरिता के तट पर धोई गई है, तुम्हारे तलवे की ललाई तीनों लोक के हृदय-रक्त से रंजित की गई है, बालों को खोल कर खड़ी हुई ओ विवस्त्र ऊर्वशी! विश्ववासना के विकसित अरविन्द पर तुम अपने अति लघुभार चरणों को रखे हुए हो (१६)। ऐ मेरी स्वप्न की संगिनी! सम्पूर्ण संसार के मानस स्वर्ग में तुम अनन्त रंग दिखला रही हो (१७)।

७—ऐ निष्ठुर बधिर ऊर्वशी! वह सुनो, तुम्हारे लिये चारों ओर से रोदन उठ रहा है (१८)। पुरातन आदि युग क्या फिर इस संसार में लौटेगा?— नछोर अतल से ऐ सिक्त केशिनी क्या तू फिर उमड़ेगी? प्रथम प्रभात में वह थम तनु क्या देखने को फिर मिलेगा?—जब निखिल के कटाक्ष-प्रहार से और गिरते हुए वारि-विन्दुओं के आधात से तुम्हारा सर्वाङ्ग रोता रहेगा (१९)। महासागर एक अपूर्व संगीत के साथ अकस्मात् तरगित होता रहेगा (२०)।

८—ऐ अस्ताचल-वासिनी ऊर्वशी! उस गौरव-राशि का अस्त हो गया है,—अब वह न लौटेगा (२१)। इसीलिये आज पृथ्वी में वसन्त के आनन्दोच्छ्वास के साथ न जाने किसके चिरविरह का दीर्घ श्वास बहा चला आ रहा है, पूर्णिमा की रात्रि में जब दशों दिशाएँ हास्य से पूर्ण हो जाती हैं, तब न जाने दूरस्मृति कहाँ से व्याकुल कर देने वाली बंशी बजाती रहती है, आँसू भरते रहते हैं (२२)। ओ बन्धन-मुक्त ऊर्वशी, प्राणों के क्रन्दन में भी आशा जागती रहती है (२३)।

'ऊर्वशी' रवीन्द्रनाथ की एक अनुपम सृष्टि है। इसमें शृगार को महाकवि की लेखनी ने पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया है। रवीन्द्रनाथ के समालोचक टमसन साहब समालोचना के लिये जिन अजित बाबू की जगह-जगह तारीफ करते हैं, अजित बाबू ने खुद लिखा है—'ऊर्वशी में सौदर्य बोध का जैसा परिपूर्ण