पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१२८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२४ रवीन्द्र-कविता-कानन महिमा दिखा रहे हैं। यह वही स्त्री है, जो अपने स्वामी की आज्ञा मान कर रात को उसके हाथ से यौवन सुरा का प्याला लेकर बिना किसी प्रकार के संकोच के सुरा पी गयी थी और आज सुबह को यह वही स्त्री है, जिसे उसका पति सिर झुका कर सम्मानित कर रहा है । इस कविता में एक ही स्त्री के दो रूपों की वर्णनाएं हैं, एक उसके रात के स्वरूप की-प्रेमिका के मानवीय सौन्दर्य को और दूसरी उसके सुबह के स्वरूप की-देवी-सौदर्य की । इन दोनों सौंदयों को विकसित कर दिखाने में रवीन्द्रनाथ को पूरी सफलता हुई है । इस पर हम ज्यादा कुछ इसलिये नहीं लिख सकते कि रवीन्द्र नाथ स्वयं अपनी कविता में विकसित रूप देते हैं । जहाँ कवि संक्षेप में वर्णन करते हैं वहाँ टीकाकारों की बन जाती है, वे उसके मनमाना अर्थ करने लगते हैं। रवीन्द्रनाथ का यह गुण समझिये या दोष, वे अपनी कविता में टीकाकारों के लिए 'किन्तु' या 'परन्तु' भी नहीं छोड़ जाते । शृंगार पर महाकवि रवीन्द्र नाथ की एक और गजब की कविता देखिये नाम है 'ऊर्वशी' । इसमें वारांगणा का सौदर्य है । स्वाभाविकता वही जो उनकी हर एक कविता में बोलती है। १-नहो माता, नहो कन्या, नहो वधू; सुन्दरी रूपसि, हे नन्दनवासीनी ऊर्वशि (१) गोष्ठे जव सन्ध्या नामे श्रान्त देह स्वर्णा चलानी तुमी कोनो गृह प्रान्ते नाहीं जाल सन्ध्या दीप खानी; द्विधाय जड़ित पदे; कम्प्रवक्षे नम्र नेत्र पाते स्मित हास्य नाही चलो सलज्जित वासर शय्याते स्तब्ध अद्ध राते। (२) ऊषार उदय सम अनवगुणिता तुमी अकुण्ठिता । (३) २-वृन्तहीन पुष्पसम आपनाते आपनी विकाशि कवे मी फुटिले ऊर्वशि । (४) आदिम वसन्तप्राते, उठेछिले मथित सागरे; डानहाते सुधापात्र, विषभाण्ड लये बाम करे; तरंगित महासिन्धु मंत्रशान्त भुजगेर मतो पड़ेछिलो पदप्रान्ते; उच्छ्वसित फणा लक्ष शत करि अवनत । (५)