पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/११५

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रवीन्द्र-कविता-कानन १११ जतो बोली सब हय मिछे कथा यदि एकटी ओ सुने ! माछ यदि देखेछे कोथाव किछुई थाके ना आर मने ! चड़ाइ पाखीर देखा पेले छुटे जाय सब पड़ा फेले ! यदि बोली च छ ज झ ञ दुष्टुमि करे बले म्यों! आमि ओरे बोली बार बार पड़ार समय तुमी पड़ो-- तार परे छुटी होये गले खेलार समय खेला कोरो! भालो मानुपेर मतो थाके आड़े आड़े चाय मुख पाने, एमनी ने भान करे, जेनो जा बोली बुझेछे तार माने ! एकटू सुयोग बुझे जेई कोथा जाय आर देखा नेइ ! आमी बोली च छ ज झ ञ औ केवल बोले म्यों-म्यों! (मै आज कानाई मास्टर हूँ, मेरे बिल्ली के बच्चे पढ़ो ! मैं उसे बेंत नहीं मारता, दिखाव भर के लिये लकड़ी लेकर बैठता हूँ, समझी माँ ! रोज देर करके आता है, पढ़ने में उसका जी भी नहीं लगता। दाहिना पैर उठा कर जंभाई लेने लगता है चाहे कितना भी उसे समझाऊँ ! दिन-रात बस खेल-कूद में पड़ा रहा है, पढ़ने-लिखने की ओर तो ध्यान देता ही नहीं। मैं जब कहता हूँ,- च, छ, ज, झ, ञ, तब वह बस म्यों-म्यों किया करता है। माँ पहली किताब के पन्ने खोल कर मैं उसे समझाता हूँ, कभी चुरा कर न खाना, गोपाल की तरह भला मानस बन । परन्तु चाहे जितना कहूँ एक भी बात उसके कान में नहीं पड़ती। कहीं मछली देखो कि रहा-सहा भी सब भूल गया । अगर कहीं उसने "चड़ाई" गौरइया पक्षी देख लिया तो बस सब पढ़ना-लिखना छोड़ कर -