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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

जानिस मागो ओदेर जेन
आकाशेतेइ बाड़ी
रात्रे जेथाय तारा गुली
दांडाय सारी सारी
देखिसने मा बागान छेये
व्यस्त ओरा कतो
बुझते पारिस केनो ओदेर
ताड़ा ताड़ी अतो?
जानिस कि कार काछे
हाथ बाड़िये आछे
मा कि ओदेर नेइको भाविस
आमार मायेर मतो?

(माँ! ज्यों ही गरगराहट से मेघों की आहट पाई जाने लगी, ज्यों ही आषाढ़ की धारा झरने लगी, ज्यों ही पूरब की हवा मैदान पार करके बाँस के झाड़ों में बाँसुरी फूँकती हुई आने लगी, कि फिर तू देख, न जाने कहाँ से ये इतने फूल निकल पड़ते हैं—ढेर के ढेर। तू सोचती होगी, वे ऐसे ही सब फूल हैं—न? माँ, मुझे तो जान पड़ता है, यह तेरी बहुत बड़ी भूल है। फूल नहीं, वे मदरसे के लड़के है, देख न बगल में किताब दबाये हुए है। वे मिट्टी के नीचे अपनी पाठशाला में रहते हैं। हम लोग जैसे दरवाजे खोल कर पढ़ते हैं, वे उस तरह वहीं पढ़ते, वे दरवाजा बन्द कर लेते हैं तब पढ़ते हैं। वे मारे डर के खेलना भी नहीं चाहते, अगर चाहें भी तो पंडित जी खड़ा कर रखें। उनकी दुपहर कब होती है, तू जानती है?—वैशाल और जेठ में । और जब आषाढ़ आता है, तब मेघों के अंधेरे में उनका पिछला पहर होता है। और जब घोर जंगलों में डालियों को खड़खड़ाहट हवा की सनसनाहट, और मेघों में गर्जना होने लगती है, तब इस शब्द में उनके साढ़े चार बजते है। बस छुट्टी मिली नहीं कि सबके सब दौड़ पड़े,—जर्द, सफेद, सब्ज और लाल, कितनी ही तरह के कपड़े पहने हुए। माँ। सुन, जान पड़ता है ये सब आकाश में रहते हैं। जहाँ रात को तारे कतार बाँध कर खड़े होते हैं। देख न, बगीचे भर में फैले हुए, कितनी जल्दबाजी देख पड़ती हैं। माँ, क्या तू कह सकती है—उनमें इतनी जल्दबाजी क्यों हैं? तू जानती है, ये किस के पास हाथ फैलाये हुए हैं? तू क्या