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दूसरा सर्ग चलि सुरपुर सौँ बिस्वामित्र अवधपुरि आए। देखे तहाँ समाज साज सब सुभग सुहाए । बन उपबन आराम सुखद सब भाँति मनोहर । लहलहात है हरित-भरित फल-फूलनि तरवर ॥१॥ बापी कूप तडाग झील सरवर सरिता सर। जीवन-धर सँताप-हर नर-ही-तल-सीतल-कर ॥ कियौ नैंकु बिस्राम आनि सरजू-तट बैठे। तहँ अन्हाइ करि नित्य-कृत्य पुर-अंतर पैठे ॥२॥ धवल-धाम-अभिराम-अवलि दोहूँ दिसि देखी। रचना परम बिचित्र चित्र मैं जाति न लेखी । मध्य भाग मैं सोहति हाट चारु चौपर की। दुहुँ दिसि दिव्य दुकान-पाँति बहु भाँति सुघर की ॥३॥