यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गई सिल्प, औ तिहि अनुरूप कला उद्धारी; पाहन आकृति लई भए गिरि जीवनधारी । मृदुतर स्वर सौँ उठ्यौ |जि प्रति मंदिर भायौ: तानसेन गायौ औ प्रभु-जस मूर सुनायौ, अमर सूर जाके सुंदर उदार उर माही, काब्य तथा साहित्य कला उपजी इक-ठाही । केवल ब्रजहि न श्रेष्ठ नाम तुव गौरव दैहै, बरु भारत-संतान सबै नित तव गुन गैहै ॥ प्राकृत भषन माहिँ चलन बानी पुनि पाई, गई फैलि चहुँ ओर अथोर कला-कुसलाई; ब्रजभाषा मैं लागी होन सुखद कबिताई, बहुत दिननि लौँ रही निरंकुसता, पर, छाई ॥ बिना संसकृत जात हुत्या नाहिन कछु जान्यौ, औ यथेष्ट पढ़िबा ताका हो अति श्रम सान्या; भाषा सौं घिन मानत हुते संसकृतवारे, 'भाषा जाहो साहो' गुनत न हे मतवार; औ उदंड भाषा कबि काब्य करत मनमाने, सुनत गुनत नहिँ संसकृतिनि के नियम पुराने ॥ पै ऐसे कछु भए मंडली मंडली बुधिवारी मैं, न्यून गर्ब मैं जो औ बढ़े जानकारी मैं,