यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. पै प्रति ओपित उक्तिहुँ दहु न मोह-उमाहन; बिस्मित मूरख होत, विबुध को काज सराहन । ज्यों कुहरे मैं लखें वस्तु गुरु देति दिखाई, त्याँ गौरवाभासप्रद सील सदा सिथिलाई ।। किते विदेसि, देस कवि सौं केते घिन मान केवल प्राचीननि, के आधुनिकनि भल जानें ॥ या बिध सौं प्रति ब्यक्ति, धर्म लौं, कबि-निपुनाई, इक समाज में गुर्ने, अपर सब नष्ट सदाई ॥ चहत नीच इहि संपति {दि एक ठाँ ठासन, बरबस एक देस मैं रवि की प्रभा-प्रकासन, जो न बुधनि कौं दक्खिन ही मैं महत बनावै, पै सीतल उत्तर देसहुँ मैं बुद्धि पकावै; जो गत जुगनि माहिँ आदिहि सौं भयौं उदै है, करत प्रकासित वर्तमान, भाविहुँ गरमैहै; जद्यपि प्रति जुग उन्नति औ अवनति अवरेखें, कबहुँ दिव्य दिन लखें, कबहुँ अति धूमिल देखें ।। तातें कबिता नव प्राचीन विचार न कीजै, पै असदहिँ निंदा, औ सदहिँ सदा जस दीजै ।। किते न अपनी निज विवेचना कबहुँ उमाहै , पै केवल निज नगर माहिँ प्रचलित मत ग्राहै :