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भुलैबी, सब्दायुध साहित्यकार-कृत-नियम [पै प्रसंस्य कहुँ किती तुच्छ बस्तुहिँ बिसरैचौ ॥] बहुत विबेचक, अनुरागी कोउ गौन कला के, अंगिहि चाहत रखन अधीन अंग के ताके; झा. नित सिद्धांत, गुनै पै उपजहिँ प्यारी, रुची मूढ़ता इक पै करहिँ सवहि बलिहारी ॥ कोऊ भडंगी सूर कथा यह प्रचलित जग मैं , भैरै भए इक बेर कहूँ कोउ कबि सौं मग मैं, सुभ साहित्य कठिन चरचा मैं अति अनुराग्यौ, दूषन भूषन के विचार करिबे मैं लाग्यो, बचन-चातुरी औ गंभीर भाव ऐसैं करि, करत विदूषक रंगभूमि पै जैसैं पग धरिः अंत किया निरधार सकल ते अति मति-होने, भरत-नियत नियमनि बाहर जिन हठि पग दीने । है प्रसन्न कबि लहि जाँचक ऐसौ बुधिबाही, दिखरायौ निज कृत नाटक औ सम्मति चाही; विषय लखायौ औ रचना प्रबंध तिहि माही, रीति, भाव, समता, क्रम, अपर कहा कछु नाही ? सो सब सुद्ध-नियम सौं निज प्रकास तहँ पायौ, पै केवल इक जुद्ध कर्म नाहिंन दरसायौ ।'