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रापरे दुभंकडू की टारै मरजाद सबै बाकी पै निरंकुस कुटेव टरै टारी ना। सब हमही से किए देत अब कोऊ करै सोन-टोकरी हू दिये नोकरी हमारी ना ॥२॥ सुमति गजानन को देत कबिराजनि काँ राजनि पै बीरता खड़ानन की छाए देत । कहै रतनाकर त्याँ अन्नपूरना की सुचि रुचिर रसोई जग-बीच अरताए देत ॥ तै घरबार ना बिलोकि द्वार मंगल काँ सीस धरी गंग हूँ उमंग सौँ वहाए देत । द्वै ही एक अंशुल गयो है रहि चाँदी जानि मादी चंदचूर चंद चूर के लुटाए देत ॥३॥ ७ कैसे मूलपानि है अपार खल खंडि देते जन-मन को जो मूल पानि करते नहीं। कहै रतनाकर न बात हम काँची कह साँची कहिवे मैं पुनि नैंकु डरते नहीं । पावते कहाँ ते गंग विष के निवारन कौँ कान जो भगीरथ की प्रान धरते नहीं। ल्याक्ते लुकार धाँ कहाँ ते काम-जारन कौँ जौ पै तीन लोक के त्रिताप हरते नहीं ॥४॥