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जानी निज संपति सिरानी ततकाल सबै, हाल चाहि चंपति के लाल रनरत्ता को। कहै रतनाकर बिचारै माथ धारे हाथ, मानि अपमान महा मुगल-महत्ता को । खीसत खिझात दाँत पोसत अमीरनि पै, देखत तुरंत अंत होत म्लेच्छ सत्ता को । सुनि गुनि धीर बीर रक्षा की बिजै पै विजै, लत्ता अवसान भयो चकित चकत्ता कौ ॥८॥ जोई जात गाजि सोई आवत गँवाइ भाजि, भारी सेन ऐसही हमारी घिसि जाइगी । बब्बर की धाक औ अकबर की साक सबै, अब्बर की छाक लौँ सनहीं मिसि जाइगी ॥ सोच-रतनाकर की तरल तरंग पोच, गनि गनि हाय कै बिहाइ निसि जाइगी। बढ़ति महत्ता देखि छत्ता की चकत्ता कहै, सत्ता इसलाम को सबै धौ खिसि जाइगी ॥९॥