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होहु आप दृढ़, पहुँच आपनी कौँ परमाना, कहँ लगि निज बुधि, रस-अनुभव, विद्यागम जाना; अपनी थाह बिहाइ बढ़ौ मत, गुनि पग धारी, अर्थ-सिथिलता मिलन-ठाम धरि धीर बिचारौ ॥ सकल वस्तु की प्रकृति जथारथ सीमा दीन्ही, अभिमानिनि की मति बिदलित, बिबेक करि, कीन्ही। ज्यौँ जब एक ओर महि को बढ़ि बारिधि बोरत, आन दिसानि महान थान बलुवे बहु छोरत; त्या जब हिय मैं रहति धारना की अधिकाई, प्रौढ़ समुझ की सक्ति रहति बलहीन लजाई; जहाँ कल्पना-ज्योति जगति अति जगमगकारी, बहति धारना की कोमल आकृति पनि बारी॥ एक बुद्धि के जोग सास्त्र एकहि सुखदाई बिद्या इती अपार, इती नरमति लघुताई । बहुधा एकहु सास्त्र सम्हारति इक मति नाही, ताहू मैं अरुझाति एकही साखा माहौँ । पूर्व-प्राप्त हम बिजय नृपति-गन सरिस गवावे, ज्यों ज्यौँ तृप्ना बिबस अधिक लहिबे कौं धावै, जामें जाको गम्य ध्यान राखै ताही को, तौ करि निज अधिकार-प्रबंध सकै सब नीका ॥