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क्रम होता है जो सूक्ष्म दृष्टि से देखा जा सकता है। भाषा केवल हमारे भावों तथा विचारों को वाहन नहीं है जो ठोंक-पीट कर सब समय काम में लाई जा सके। उसका एक स्वतंत्र व्यक्तित्व और वातावरण भी होता है। हमारी ही तरह उसकी भी शक्ति, इच्छा और संस्कार होते हैं। समय के परिवर्तनशील पटल पर उसकी भी अनेक प्रकार की आकृतियां बनती रहती हैं। उन्हें पहचानना कविजनों के लिए उपयोगी ही नहीं, आवश्यक भी है। जो व्रजभाषा भक्तों की भावनाओं से भर कर रीति-कवियों की साज-सज्जा से चटकीली हो रही है, उसके साथ आलाप करना या तो किसी बड़े कलाभिज्ञ का ही काम है और या किसी निपट अनाड़ी का ही । जो भाषा अपनी संपूर्ण प्रौढ़ प्रतिभा और देशव्यापी प्रभाव के रहते हुए भी अपनी ही परिचारिका खड़ी बोली को अपना सौभाग्य सौंप कर विवश पड़ी हो, उस मानिनो को सांत्वना देने के लिए उसके किसी अनन्य प्रेमी की ही आवश्यकता होगी। व्रज की वह सभ्य सुंदरी जब ग्रामीण और अनुपयोगी कही जा रही हो, तब उसके रोष-दीप्त मुख के अश्रु-मुक्ताओं को सँभालने के लिए बहुत बड़ी सहानुभूति आपेक्षित है। जो लोग भाषाओं को यह परिवर्तित परिस्थिति नहीं समझते, वे सच्चे अर्थ में कविता-रसिक नहीं कहे जा सकते। उनके लिए तो सभी भाषाएँ सभी वेषों और सब कामों में लगाई जा सकती है। परंतु वास्तव में भाषा के प्रति यह बहुत ही निर्दय व्यवहार है। बहुत दिन नहीं हुए जब हिंदी की एक पुस्तक में पढ़ा था कि-व्रजभाषा और खड़ी बोली में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही हिंदी हैं। दोनों को मिला-जुला कर व्यवहार करना ही हिंदी की सच्ची सेवा है। इनका पृथक् अस्तित्व न मानना ही इनका झगड़ा दूर करना है।" आदि। इसके लेखक महोदय अपने को ब्रजभाषा का समर्थक और उपकारी मानते हैं और उन्होंने अपनी कविता-पुस्तक की भूमिका में ये बातें लिखी हैं। उनकी पद्य रचनाएँ पढ़ने पर विदित हुआ कि उन्होंने खिचड़ी भाषा लिखकर अपनी भूमिका को चरितार्थ भी किया है। विषय भी उन्होंने कुछ नए और कुछ पुराने चुनकर अपना सिद्धांत सोलह आने सार्थक करने का प्रयास किया है। पर हमारे देखने में उनको यह सारी चेष्टा व्यर्थ हो गई है। उनकी कविता में न तो ब्रजभाषा का उन्नन शब्द-सौंदर्य है और न उसको चिर दिन की अभ्यस्त भंगिमाएँ। उनकी खड़ी बोली .भी मानों शिथिल होकर लेटे लेटे चलना चाहती हो। जब रचना में रसे ही नहीं आया, तब उससे क्या लाभ हम यह नहीं कहते कि ब्रजभाषा का व्यवहार नए विषयों के वर्णन में किया ही नहीं जा सकता; परंतु इसके लिए प्रचुर प्रतिभा चाहिए। भारतेंदु हरिश्चंद्र को छोड़कर व्रजभाषा के और किसी उपासक को इस युग में वह प्रतिभा कदाचित् हो मिली हो। अँगरेजी शिक्षा के प्रचार और अँगरेजी कविता के अध्ययन-अभ्यास से खड़ी बोली चैतन्य गति से हमारे हृदय चुराकर चल रही है। पर ब्रजभाषा को वह सौभाग्य न मिल सका। यद्यपि नवलता ही जगत के आह्लाद का हेतु है, परंतु पुरानी कलाएँ भी चिरंतन आनंद को विषय बनी रहती हैं। यदि जनता की परिवर्तित रुचि के कारण व्रजभाषा समय का साथ देने में असमर्थ हो अथवा यदि कोई ऐसा कवि न हो जो अपनी अपूर्व