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(१४) शिशिराष्टक फूली अवली है लोध लवली लवंगनि की, धवली भई है स्वच्छ सोभा गिरि-सानु की। कहै रतनाकर त्यौँ मरुवक फूलनि पै, झूलनि सुहाई लगै हिम-परमानु की । साँझ-तरनी औ भोर-तारा सी दिखाई देति, सिसिर कुही मैं दवी दीपति कृसानु की। सीत-भीत हिय मैं न भेद यह भान होत, भानु की प्रभा है कै प्रभा है सीतभानु की ॥१॥ धाइ धाइ सिंधुर मदंध फूले लोधनि सौं, गंध-लुब्ध है कै कंध रगरत गात हैं। कहै रतनाकर प्रभात अरुनाई माहि, बाघनि के लेरुवा लरत लुरियात हैं। उठि उठि धूम बनबासिनि के बासनि तैं, त्रासनि ते सीत के तहाई मँडरात हैं। पंछीगन सीस काढ़ि विटप-बसेरनि तें उमहि कछूक मौन गहि रहि जात हैं ॥२॥