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कोकिल की कूक सुनि हुक हिय माहिँ उठे, लूक से पलास लखि अंग झरसान्यौ है। करिहौँ कहा धौ धीर धरिहौं कहाँ लौँ बीर, पीरद समीर त्यौँ सरीर सरसान्यौ है ॥ पल पल दूजै पल आवन की आस जियौ, ताहू पर पत्र आइ बिष बरसान्यौ है । अवधि बदी है कल आवन की कंत अरु, आज आइ ब्रज मैं बसंत दरसान्यौ है ॥३॥ बारिधि बसंत बढ्यौ चाव चढ्यौ आवत है, बिबस बियोगिनि करेजी थामि थहरैं। कहै रतनाकर त्याँ किंसुक-प्रसून जाल, ज्वाल बड़वानल की हेरि हियँ हह” ॥ तुम समुझावति कहा है। समुझा तो यह, धीरज-धरा पै अब कैसै पग ठहरैं । भीर चहुँ ओर भ्रमैं एकौ पल नाहिँ थम्हैं , सीतल सुगंध मंद मारुत की लहरें ॥४॥ पौन चहुँ-आसी ब्रजबासी चहुँघाँ सौं चले, बादर गुलाल को बिसाल दरसत कहै रतनाकर मुकेस को बिलास तामैं, चंचला को चपल प्रकास परसत है। ?