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कहति गिरा यौँ गुनि कमला उमा सौ चलो, भारत मही मैं पुनि मंजु छबि छाजै हम । राखै जो न नै कु टेक जन-मन-रंजन की, हरि हर बिधि की वृथा हो बाम बाजै हम ॥ माख मानि बैठ्यौ ऐं ठि लाडिला हमारी ताका, करि मनुहार सुधा-धार उपराजै हम । साजै सुख संपति के सकल समाज आज, चलि रतनाकर कै नैं सुक निवाज हम ॥२॥ आवति गिरा है रतनाकर निवाजन कौं, आनँद - तरंग अंग ढहरति आवै है। हिय-तमहाई सुभ सरद-जुन्हाई सम, गहब गुराई गात गहरति आवै है ॥ बर बरदाननि के विविध विधाननि के, दान की उमंग धुजा फहरति आवै है। लहरति आवै हग कोरनि कृपा को कानि, मंद मुसुकानि-बटा छहरति आवै है ॥३॥ आवत ही सारदा अमंद मुख-चंद हिौँ, श्रोति मन-मनि सौँ श्रवति कबितानि की। कहै रतनाकर कढ़ति धुनि है सो पुनि, पावत उमंग कल किन्नरी-कलानि की।