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घेरि-घेरि ज्या-ज्यों मन माहि चड्यो राखन की, फेरि फेरि त्याँ त्यों तुम भाजन भले गए। जानि हमें कादर निरादर करन नाथ, मृर के हिये से क्यों न नि मुकि चले गए॥१०॥ मूर तुलसी लॉ नाहिं भक्ति अधिकारी हम, ताके मॉगिवे की चित्त चाह गहिवा कहा ! कहै रतनाकर न पंडिताई केसव की, ताते कल कीरति की हाँस बर्दिवा कहा । मन अभिलाषै धन, धाम वाम नाम सदा, पूछत निहारे सकुचात कहिची कहा । तातें अब तुमही बनावो हू कृपाल टाहि, अपर हमें है तुम्हें चाहि चद्दिवा कहा ॥५१॥ स्वारथ को पथ गथ गृह परमारथ को, पारथ हू पायो ना तो और कौन पैहै जो । कहै रतनाकर न रंच यह पार्दै जाँचि, जांचे कहा साँच ही प्रपंच-खाँच ख्वैह जो ॥ याही उर अंतर निरंतर प्रतीत धरै, याही मुख मंतर हू अंत दुख है जो । है है इठि साई जो तिहारै मन भैहै नाथ, भैहै तुम्हें सेई तो हमारी हित हेहै जो ॥५२॥