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रावर प्रभाव को प्रकास चहुँ पास गँग, हेरि हिय सहित हुलास कुलास हरसत वेधि वेधि व्योम जो सिधारे तब तारे साई, वेध ब्रह्म जाति लै मितारे दरसत ॥३९।। ईसहू बनायौ सीस-भूषन प्रसंसि ताहि, मानस-विहारी परम्हंस घिरके रहत । धारन कौँ सादर उदार रतनाकर के, अंग अंग सहित उमंग थिरके रहत ।। मानि भाग-वैभव सुहाग-मांग पूग्न कौं, सरग-वधूटिनि के जूट भिरके रहत । सुरधुनि-धार निरधारि मुकता को हार, मुकति अपार के प्रकार घिरके रहत ॥४०॥ मंदर कौ भार भरते ना सुकुमार हरि, वासुकी की वरत बनाइ बरते नहीं। कहै रतनाकर सुरासुर प्रसिद्ध सवै, होन का अमर कै समर मरते नहीं। इहि जग जटिल अनैसे माहि जीवन का पीवन काँ ताहि नर हाँस भरते नहीं। जौ ना निरधारते सुधा तौ-धार सेोदर तौ, सीस पै सुधाधर गिरीस धरते नहीं ॥४॥