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दारिद-दुरूह-ब्यूह कठिन करारनि औ, दुरब-द्रम-भारनि विहंडति चलति है। खंडति अखंड दोष-द.प-झार खंडनि कौं, मंजु महि-मंडल की मंडति चलति है ॥१४॥ देवधुनि न्हाइ न्हाइ चंद-मुखी-बृद-चारु, देख जिन्हें मान मैनका के मले जात हैं। कहै रतनाकर विभूषन बसन धारि, झारिनि मैं मंजुल सुवारि रले जात हैं। पेखि पाकसासन-पुरी मैं गंग-मासन सौं, भूरि अमृतासन नवीन हले जात हैं। मानौ लोक लोक के सुधाकर के आकर ये, लै लै सुधा-धार बसुधा सौं चले जात हैं ॥१५॥ तेरी लहरी के कल गान सुनिबे को ठानि, बीनापानि हैं रहै नित चित चाइ कै । गुन गन तेरौ उर जानि रतनाकर के, चंचला चलै ना ताहि तनक बिहाइ कै॥ हंस की कहे को परम्हंस आइ से. ताहि, छीर-नीर-न्याय मानसानंद विहाइ के। जूटी रहैं अखिल सुधासन-वधूटी तट, तब जल-पासन को आसन लगाइ ॥१६॥ कै