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फहरति आवै कंदरप की पताका-रासि, पारस-पाखान-खानि ढहरति आवै है। आगे चले आवत भगीरथ भगाए रथ, गंग की तरंग पाछै लहरति आवै है ॥२॥ विधि बरदायक की सुकृति-समृद्धि-वृद्धि, संभु सुर-नायक की सिद्धि की सुनाका है । कहै रतनाकर त्रिलोक-सोक नासन काँ, अतुल त्रिविक्रम के विक्रम की साका है ।। जम-भय-भारी-तम-तोम निरवारन का, गंग यह रावरी तरंग तुंग राका है। सगर-कुमारनि के तारन की टेनी सुभ, भूपति भगीरथ के पुन्य की पताका है ॥ १० ॥ दुरित दरीनि कंदरीनि को विदारि वेगि, चारों ओर-छोर सोर आपनी भराए देति । कहै रतनाकर त्यो पाप-खानि-खाड़ी आनि, द्रोह दुरमति कलि रेलुष ढहाए देति ।। करम करारे दुख-दारिद दिना द्रुम, देखत दरारे करि काटि भहराए देति । पुन्य-सील सलिल सुकृत-बर-बारी सी चि, सुरसरि-धार फल चारिहूँ फराए देति ॥११॥