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कैयौं अति दुसह दवा गे की दपेट कैयौँ, वाड़व की विषम झपेर-झर-झार है। कई रतनाकर दहति दाद दारुन साँ, उगिलत आगि कैयों पावक-पहार है। रुद्र-दृग तीसरे की कैयौं विकराल बाल, फेकल फुलेंग के फनिंद फुफुकार है। कैधों ऋतुन-काज अवनि उसास लेति, कैथै यह ग्रीषम की भीषम लुार है ।.१४९।। जोहि पतिबिंब मोहि मोहन न मे है कहूँ, यह मनमोहिनी करनि चित चेन है। कौन तुम सुंदरो सकारें ही पधारी भौन, कहति चितन सौ जनइ हिम-हेत है ।। अति सुकुमारी भूरि-भूपन-संवारी तुम, कित धाँ पधारी इत हरि को नित है। बरवस नारिनि को सरवस वानिक सो, हेरि मन-मानिक समेत हरि लेत है ॥१५॥ होरी खेलवे का रंग रुचिर कमोरी घोरि, गोपी-ग्वाल-मंडल अखंड उमगान्यौ है कहै रतनाकर बजावत मृदंग चंग, गावत धमार मार अंग सरसान्यौ है।