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मान ठानि बैठी जित सुंदरी तित है कढ़ी, बाम एक श्यामल सघन बन खोरी काँ। क रतनाकर दिखाई दै दुरति चलि, मुरति ठगोरी देति ठठकि किसोरी की। सो लखि अनख नखि विलखि दवाए पाइ, आई कलि-कुंज गहिवे का कान्द चोरी काँ। इत उत जो लौँ वह हेरन ससंक लगी, तो लौँ अंक साँवरी निसंक भरी गोरी कौ ॥६॥ रति बिपरीति रची प्यारी मनमोहन साँ, करि कै कलोल केलि कसक मिटाए लेति । हिय हलकोरनि सौँ झमकि झकोरनि साँ, किंकिनी के सोरनि सौं उर उमगाए लेनि ॥ उच्च कुच-कोरनि सौँ जुग-जंघ-जोरनि साँ, मैन के मरोरनि सौँ दुमुचि दवाए लेति । अंग-अंग अमित अनंग की तरंग भरी, प्रथम समागम को बदलौ चुकाए लेति ॥६२॥ प्यारे परबीन कौँ बनाया नवला नवीन, नायक प्रबीन बनि आप उर लाए लेति । छल कै छबीली ज्यौँ ज्यौँ भरन न देत अंक, त्याँही त्यौँ निसंक भुज भरि लपटाए लेति ॥