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लखि सखि आज की अनूप सुखमा को रोपै रस रुचिर मिठास लौन-सीली को ललकि लचैबौ लोल लोचन लला को इत, मचलि मनैबा उत राधिका रसीली का ॥४६॥ बीति जाति बातनि मैं सुखद सँजोग-राति, अंतर थिरात नाहिँ साँझ औ सबेरे मैं । कहै रतनाकर कुलिस-हिय-धारी भारी, करत अकाज आप नास हू है हेरे मैं ॥ मिलि घनस्याम सौं तमकि जो बियोग महि, चमकि चमक उपजाई उर मेरे मैं । ताके बदले को दुख दुसह बिचारि आज, गरक गई है मनौ बीजुरी अँधेरे मैं ॥४७॥ आज बड़े भागनि मिलेंगे ब्रजराज आइ, साज सुख-संपति के सिगरे सजाइ दै। कहै रतनाकर हमारे अभिलाष लाख, रजनी रंचक ताहि सजनी बढ़ाइ दै॥ हूँढ़ि कै अगस्त कौँ विनै करि बुलाइ बेगि, कैसैं हूँ बुझाइ ऐसौ बानक बनाइ दै। विंध्याचल अचल परयौ है चलि जाते जाइ, ओटि उदयाचल का मचल मचाइ दै ॥४८॥