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जस-रस मधुर लुनाई ग्तनाकर को, काननि में वरसि घटा लाँ ननदी चली। बांडे तुन पात लॉ सकल कुलकानि गई, गुरु गिरि रोक-टोक दै जिमि रदी चली ॥ लाख अभिलाष-भौर भ्रमन गंभीर लगा, उमगि उमंग-शाढ़ करति बढी चली। धीरज-करार फोरि लज्जा-द्रुम तोरि बोरि, नोकदार नैननि तँ निकसि नदी चली ॥३२॥ औचक अकेले मिले कुंज रस पुंज दोऊ, भौचक भए औ सुधि बुधि सब ख्वै गई। कहै रतनाकर त्या वानक विचित्र बन्यो, चित्र की सी पलके सुभाँहनि मैं वै गई॥ नैननि मैं नैननि के विंच प्रतिक्विनि साँ, दोऊ और नैननि की पाँति बधि द्वै गई। दोउनि को दोउनि के रूप लखिवे का मना, चार आँख होत ही हजार आँख है गई ॥३३॥ लाख अभिलाषनि को होत ही कुलाहल है, मोकली न पावै मग नैं कु निबुकाइ दै। कहै रतनाकर झरोखनि के मोखे करि, कूदि काबे को तिन्हें बानक बनाइ दै॥