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ताकै चारों ओर बने जंगला बेला के, बने हंस तिन माहिँ प्रसंसनीय सुषमा के । स्वच्छ सुघर भव-पंक-रहित माना संतनि मन, बिहरत पूरि प्रमोद सतोगुन के नंदनवन ॥ २९ ॥ कल-कोमल-धुनि-धाम घंटिकावलि सुर-साधी, बढ़-घट मेल मिलाइ लसति छोरनि में नाधी। गादी ललित लाल मखमल की नरम बिछाई, हरित दौर चहुँ ओर कोर पीरी छबि छाई ॥ ३०॥ मनहु अमल अनुराग-भूमि साहति सुखदाई, हरित आस की दूब चारु चहुँ पास लगाई । रचि पचि माली-काम परम अभिराम बनाई, अटल प्रीति-पुखराजि-मेडि मंजुल मन-भाई ॥३१॥ मिलि सब साज समाज बँध्यौ इमि समौ सुहायौ, चतुरानन जिहिँ चाहि चातुरी-गर्व गँवायौ। हेरि हिंडोरे की सुषमा सुंदर सुघराई, अति अद्भुत अनूप उपमा आवति अधिकाई ॥ ३२ ॥ अटल बिबेक ज्ञान पर दृढ़ बिस्वास धरयो मनु, अर्थ, धर्म अरु काम, मोच्छ ताकै अधीन अनु । ब्रह्मानंद अमंद परम दुर्लभ सुभकारी, राजत तिनकै मध्य मंजु छाजत छवि भारी ॥ ३३ ॥