यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चहल-पहल तहँ मची मंजु महेलनि की भारी। वसन-विभूषन-वलित ललित अवसर-अनुहारी ॥ कंचन-करवा वारि चलति ढरकावन चेरी। राई-लोन उतार उमगि बलि जाति जठेग ॥ ३५ ॥ विप्र-वधू कुल-मान्य देति आसिप सुख-सानी । परसति पाय नवाइ सीस सरसत-दृग रानी ।। पुरट-पाट-पट पारि पाँवड़े मृदुल मनोहर । सादर चली लिवाइ ललकि गावति सुभ सोहर ॥ ३६॥ मनि-मंदिर बैठाइ पाय सानंद पखारे । सजि-सजि कंचन-थार भारते उमगि उतारे । लगी निछावर हेन सोन-मुक्ता-मनि-देरी । भरि-भरि काँछनि चली भाट-नट-नारि कमेरी।। ३७ ॥ इहि विधि परमानंद होन तृप-मंदिर लागे । परिजन-जा-समूह सकल सुख लहि अनुरागे ॥ घर घर ब्यापी भूप-सुकृत-सुभ-कथा सुहाई । कहत सुनत चहुँ कोद मोद-महि लोग लुगाई ॥ ३८ ॥ गुरु वसिष्ठ तव साधि सुदिन दीन्यौ अनुसासन। सभा-भौन सजि विसद बन्यौ दूजी इंद्रासन । द्विज-गन परम पुनीत प्रीति-जुत न्योति पठाए । सचिव सूर सामंत स्वजन परिजन जुरि आए ॥ ३९ ॥