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पुरजन परिजन स्वजन चले उमगत अगवानी । आग किए वसिष्ठ आदि द्विज-ान विज्ञानी ।। पुर वाहिर है लगे लखन लोचन ललकाए । तब लौं दृग-पथ आइ भगीरथ-रथ नियराए ॥ २५ ॥ लखि वसिष्ठ कुल-इष्ट भूप स्यंदन तजि धाए । पुलकि ढारि ग बारि सपद पायनि लपटाए । कंपित कर वर पकरि माथ मुनि-नाथ उठायौ । वरवस विरति बिसारि प्रेम-कातर उर लायो ।॥ २६ ॥ बार-बार कुसलात पूछि आनँद अबगायौ । कर्म-बीर-नर-नाह-साहसहि हुलसि सगयौ ।। तब नर-चर सव अपर विष-बृदनि-पद वंदे । पुर-वासिनि सनमानि मानि सुख सवनि अनंदे ॥ २७ ॥ ग्राम-देवतनि पूजि दान बहु भाँतिनि कीन्यौ । नाइ ईस का सीस पाय पुर-अंतर दीन्यौ । चले सकल मिलि कहत सुनत नृप-सुजस-कहानी। पुर-बासिनि की भी दरस-हित अति उमगानी ॥ २८ ॥ धरे वसन बहु-भाँति पाँति दुहुँ और लगाए । जय-जय-धुनि सब करत महा मन मोद मनाए ॥ साजे नव-सत सुमुखि-बृद छातनि छबि छावत । गावत मंगल गीत सुमन सादर बरसावत ॥ २९ ॥