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चयोदश सर्ग भूप भगीरथ तब अन्हाइ अदभुत सुख लीन्यौ । संध्या-बंदन साधि देव-पितरनि जल दीन्यौ । मन प्रमोद तन पुलक प्रेम-जल पलकनि छाए । गद्गद स्वर सौँ करी गंग-अस्तुति उमगाए ॥१॥ जय तांडव-द्रव-भूत-ब्रह्म-मूरति अति पावनि । प्रबल-प्रभाव-अमोघ सकल-अघ-ओघ-नसावनि ॥ चतुरानन-हरि-ईस-परम- पद - बिसद - बितरनी । दस-पातक-असुरारि-रूप दस इक-अवतरनी ॥ २॥ बिरंचि-कृत-बंक-अंक-निस्संक-पखारिनि । सुख-संपति-संतान-मान-बिस्तारिनि तारिनि ॥ जय हरि की सम-हरनि बाँटि तारन-कृति भारी । निज महिमा-बल-बिपुल बहुरि बहु रचि असुरारी॥३॥ जय गिरीस-सुभ-सीस-सरस-साभा-संचारिनि । हृत-त्रिलोक-त्रय-ताप-जनित-संताप-निवारिनि ॥ अमृतासन-बृद-तोष-निज-बाढ़-बढ़ावनि । स्वल्प-सुधा-कृत-देव-दनुज-दल-द्रोह-बहावनि ॥४॥ जय