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अंसुमान की कठिन पान करि कानि उतारी। कर्म-बीरता-सुभग-सीख त्रिभुवन संचारी ॥ मुरे न लखि घन बिधन ठान ठानी सो ठानी। किए सुरासुर दंग गंग अवनी पर आनी ॥ २५ ॥ मृत्यु-लोक मैं धरचौ आनि सुभ स्रोत अमी को । दै महिमा महि कियौं सारथक नाम मही कौ ॥ यह अति दुस्तर काज आज लौँ अपर न साध्यौ । जद्यपि सहि बहु कष्ट इष्ट-देवनि आराध्यौ ॥ २६ ॥ साठ सहस नृप-सगर-पूत करि पूत उधारे । पुन्य सलिल सै कपिल-साप के ताप निवारे ॥ जब लौँ सुरधुनि-धवल-धार सागर मैं धसिहैं । तब लौँ ते गत-साक दिव्य लोकनि मैं बसिहैं ॥२७॥ सगर हिये कौ पुत्र-बिरह-उद्वेग थिरायौ । सुरपुरहूँ मैं देत ताप संताप सिरायौ ॥ कपिलदेवहूँ लगौ तोष लखि सुरसरि-करनी । निज आस्त्रम की बढ़ी मानि महिमा मल-हरनी ॥ २८॥ तव पितरनि-हित लागि गंगहूँ अति हुलसाई । बर मुकतिनि को रासि निछावरि माहिँ लुटाई ॥ थल-थल थापे पुन्य-छेत्र चारहु-फल-दाई । दस दिगंगननि तब कीरति-सारी पहिराई ॥ २९॥