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मानौ, सुमन हिंडोरा लसत एक तेहि मंडल माही, जाकौँ बानक विसद बिलोकि सुमन सकुचाही। सुख-सागर-तरंग-दीच्छा-गुरु राजत तरुनि तियनि की चल चितौनि को सार बखानौ ॥ २१ ॥ कैयौँ लाज मदन के मध्य परयौ मध्या-जिय, कै अभिसार-समै कलकामिनि को धरकत हिय । किधौँ राग कुल कानि बीच अनुरागिनि को चित, सकै न ठिकु ठहराइ जात आवत नित उत इत ॥ २२ ॥ चुनि चुनि बेला कलिनि अलिनि लर [थि बनाई, रचि रचि रेखें रुचिर दुहूँ खंभान लपटाई। कहूँ फूल, कहुँ बेल, कहूँ बूटे, कहुँ तरवर, बिच बिच तिनकै कीर, मोर, मृग औ सुरभी बर॥ २३ ॥ बाँधि सुमन बहुरंग उमंग-समेत बनाए, जहँ जहँ जो जो उचित रंग सोई सो लाए। मनहुँ बिबिध बपु धरि निरखत छबि-छकित सुमन-गन, सत-गुन-सहित लसत चहुँ दिसि अति मुदित मुनिनि मन ॥२४॥ तिनपै तैसिहि सुमन सजित इक धरी मयारी, गुच्छनि के करि कलस दुहूँ दिसि सुघर-सँवारी । रूप-गर्ब, गुन-गर्व दर्पि जनु सीस उठायौ, पुनि सुभाव-गौरव सौं दबि अति आदर पायौ ॥ २५ ।। .