यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जह तहँ करत कलोल लोल-लोचनि-ललना-गन । सुंदर सुघर सुजान रूप-गुन-मान-मुदित-मन ॥ कोउ ऍठति तन तोरि छोरि अँगिया कोउ बैठति । कोऊ उमैठति भौंह सौंह करि कोउ जल पैठति ॥ १५ ॥ कोउ काहू को पकरि पानि डगमग पग धारति । कोउ चंचल करि चखनि विचल अँचलहिँ सम्हारति ॥ कोउ निबटति कटि-तट समेटि चट पट-गुझरौटा । हँसति धंसति जलधार कसति कोउ कलित कछौटा ॥१६॥ सीस सजल कर छाइ छपकि कोउ छीट उछारति । सुर-तरु-डारनि मथति सुधा सुख-सार निसारति ॥ कर-पिचकी-जल-केलि करति कोउ आनँद धारे । अरबिंदनि तें चलत मनहु मकरंद-फुहारे ॥१७॥ भूषन-जरित-जराय-कलित पैरति कोउ जल पर । मनहु रतन उतरात छीर-सागर-बर-तल पर । न्हाइ-न्हाइ तट आइ सकल सुंदरि छबि छाजै । मुकुर-धाम मनु काम-बाम-प्रतिबिंब बिराजै ॥ १८ ॥ कोउ ऊरुनि बिच दाबि बसन गीले गहि गारति । उसरत पट कटि उरसि संक-जुत बंक निहारति ॥ कोउ लंकहिँ लचकाइ लचकि कच-भार निचोरति । मर्कत-बल्लिनि मीडि मंजु मुकता-फल भोरति ॥ १९॥