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कह मिलि जुलि दस पाँच नाच-गैंग रुचिर रचावति । हृढौ दै इठलाइ झमकि झुकि लंक लचावति ॥ कोउ गोरुनि जल प्याइ न्हाइ परखति पनघट पर । कोउ गागरि भरि चलति सीस धरि कोउ कटि-तट पुर ॥२०॥ लखि मसान कहुँ गंग मान ताको छिति छापति । तहँ मिलान सुभ सरल स्वर्ग-पथ को थिर थापति ॥ हाड़ माँस तन-सार छार जिनके जल परसत । सो सुभ गति अति लहत जाहि जोगी-जन तरसत ॥ २१ ॥ तुरत गंग-गन धाइ मगन-मन जुरत जुहारत । जम-दूतनि सौं अटकि झटकि महि पटकि पछारत ॥ बरबस तिनहिँ छुड़ाइ बेगि बैठाइ बिमाननि । पहुँचावत सुर-लोक सोक के लाँघि सिवाननि ॥ २२ ॥ कोउ मग ही सौं मुरत कोऊ जमराज-सभा सौँ । कोउ नरकनि कौ फारि द्वार परिपूरि प्रभा सौँ ॥ चित्रगुप्त चितवत चरित्र यह चित्र भए से । जकित जोहि जमराज काज निज बिसरि गए से ॥ २३॥ कोउ पापिहिँ पंचत्व-प्राप्त सुनि जमगन धावत । बनि बनि बावन-बीर बढ़त चौचंद मचावत ॥ ताकी तकि लोथ त्रिपथगा के तट ल्यावत । नौ-द्वै ग्यारह होत तीन-पाँचहिँ बिसरावत ॥ २४ ॥