यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कोउ नहान कोउ दान करत कोउ ध्यान सुधारत । कोउ स्रद्धा साँ पितर स्राद्ध नरपन करि तारत ।। कोऊ वेद वेदांत मथत रस सांत उगाहत। कोऊ चढ़यौ चित-चाव भक्ति के भाव उमाहत ॥ २५ ॥ कोर निरूपि निर्वान पुलकि सानंद दृग फेरत । कोउ अघाइ जल-स्वाद पाइ ताकाँ हँसि हेरत ॥ कोउ अन्हात पछितात न पुनि जग-जनम विचारत । कोउ कुटीर-हित हुलसि तीर पर ठाम निहारत ॥ २६ ॥ कवि कोविद कोउ भव्य भाव उर अंतर खाँचत । निरखि उतंग तरंग रंग प्रतिभा को जाँचत । सुमिरि गिरा गननाथ गंग कौं माथ नवावत । रुचिर काव्य-कल-करन-काज चित चाव चढ़ावत ॥ २७ ॥ उज्जल-अमल-अनूप-रूप-उपमा सोधत। मुकता-पानिप सरिस स्वच्छ कहि कछु मन वोधत ।। पै तिहिँ अचल विचारि चित्त तासाँ विचलावत । पुनि बरनन कौँ वरन बरन आनन नहिं आवत ॥ २८ ॥ विपुल बेग बल विक्रम कौँ गुनि गिरि-तरु-गंजन । तिनकी समता-हेत चेत चित परत प्रभंजन ॥ पै तामै सुख-परस सरस को दरस न देखत । प्रबल बाह मैं वहीं सकल उपमा तब लेखत ॥ २९ ॥