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लेखत॥ कोउ काहू कोउ ढिठाइ नियराइ ठाइ पग झुकि जल परसत । सुधा-स्वाद-सुख बाद बदत रसना रस सरसत॥ ताकी देखादेख सेष सब चाव उचावत । हिचकिचात ललचात नीर ने चलि आवत ॥ १० ॥ साँचि सीस आचम्य रम्य सुखमा सुभ देखत । नंदनवन-आनंद-अमित-लेखा लघु कोउ ठमकत गहि ठाम ठठोली करि कोउ ठेलत । कोउ भाजत छल छाइ धाइ कोउ ताहि पछेलत ॥ ११ ॥ कोउ सीतल-जल-छीट छपकि काहू पर छिरकत । काँ पकरि पीठि-पाछै हटि हिरकत ॥ कोउ अधार कछु धारि धंसत जानू लगि जल मैं । हरबराइ पर कढ़त थमत नहिँ पूर प्रबल मैं ॥१२॥ कोउ कटि-तट पट बाँधि खेल अटपट अति ठावत । इत नै उत जल-धार-ढार-नीचें है धावत ।। यह कौतुक कल अपर सकल बिस्मित-चित चाहत । साधु साधु कहि गहि जुहारि जुरि ताहि सराहत ॥ १३ ॥ जहँ कोउ मंजुल मोड़ तोड़-गति तरल निवारत । प्रबल-बेग जल फैलि सांति-सुखमा विस्तारत ॥ तहाँ जूह के जूह जुरत जल-केलि-उमाहे । बहु बिनोद आमोद करत आनँद अवगाहे ॥ १४ ॥