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कहुँ ढाहे ढोकनि दुकाइ निज गति अवरोधति । पुनि ढकेलि दुरकाइ तिन्हें पकर्यो मग सोधति ॥ कवहुँ चलति कतराइ वक्र नव वाट काटि गहि । कबहुँ पूरि जल-पूर कूर ऊपर उमंडि वहि ॥ २५॥ कहुँ विस्तर थल पाइ वारि-विस्तार बढ़ावति । लघु गुरु वीचि पसारि छंद-प्रस्तार पढ़ावति ॥ के दिग-दंती-दंत-दिव्य-दीरघ-पाटी पर। लिखति सतोगुन घोटि भूप-जस-रूप रुचिर बर ॥२६॥ पुनि कोउ घाटी वीच भीचि जल-बेग बढ़ावति । दुरकत ढोकनि खड़बड़ाइ धुनि-धूम मचावति ॥ मनहु भूप को अति अनूप वर विरद उचारति । जम-गन को दरि दंभ खंभ ठोकति ललकारति ॥ २७ ॥ हरहराति हर-हार सरिस घाटी सौं निकरति । भव-भय-भेक अनेक एक संगहि सब निगरति ॥ अखिल हंस-वर-बंस घेरि साँकर घर धारे। भरभराइ इक संग कढ़त मनु खुलत किवारे ॥२८॥ कहुँ कोउ गहर गुहा माहिँ घहरति घुसि घूमति । प्रवल बेग साँ धमकि धूसि दसहूँ दिसि दूमति ॥ कढ़ति फोरि इक ओर घोर धुनि प्रतिधुनि पूरति । मानहु उड़ति सुरंग गूढ़ गिरि-सुगनि चूरति ॥ २९॥