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इहि बिधि धावति ५सति ढरति ढरकति सुख-देनी । मनहु सवाँरति सुभ सुर-पुर की सुगम निसेनी ॥ विपुल. बेग बल बिक्रम के ओजनि उमगाई । हरहराति हरषाति संभु-सनमुख जब आई ॥ ३५ ॥ भई यकित छबि छकित हेरि हर-रूप मनोहर । है आनहि के प्रान रहे तन धरे धरोहर ॥ भयौ कोप को लोप चोप औरै उमगाई । चित चिकनाई चढ़ी कढ़ी सब रोष-रुखाई ॥ ३६॥ छोभ-छलक है गई प्रेम की पुलक अंग मैं । थहरन के ढरि ढंग परे उछरति तरंग मैं ॥ भयौ बेग उद्वेग पेंग छाती पर धरकी। हरहरान धुनि विघटि सुरट उघटी हर-हर की ॥ ३७॥ भया हुतौ भ्र-भंग-भाव जो भव-निदरन को। तामैं पलटि प्रभाव पर्यो हिय हेरि हरन कौ ॥ प्रगटत सोइ अनुभाव भाव औरै सुखकारी । है थाई उतसाह भयौ रति को संचारी ॥ ३८ ॥ कृपानिधान सुजान संभु हिय की गति जानी । दिया सीस पर ठाम बाम करि कै मन मानी ॥ सकुचति ऐचति अंग गंग सुख-संग लजानी। जटा-जूट-हिम-कूट सघन बन सिमिटि समानी ॥ ३९ ॥