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यह सुनि महा धीर भूपति-मन नैं कु डग्यौ ना । संसय संका सोक सोच में पलहुँ पग्यौ ना ॥ वरु वाड़ी चित चाप ओप आनन पर आई। अमित उमंग-तरंग अंग-अंगनि मैं छाई ॥ २५ ॥ अब तो हम सुभ ढंग गंग-श्रावन को पायो । पारावार-अपार-परे को पार लखायौ। यह विचार निर्धारि हिये आनंद सरसायो। धन्यवाद है नीर निकरि नैननि ते आया ॥ २६॥ पुनि लागे तप तपन जपन संकर दुख-भंजन । वर-दायक करुना-निधान निज-जन-मन-रंजन ॥ इक अँगुठा है ठगढ़ गाढ़ ब्रत संजम लीने । सहे विविध दुख गहे मौन इक दिसि मन दीने ॥ २७ ॥ खान पान बस किए नोंद नारी विसराए । और ध्यान सब धोइ देवधुनि की धुनि लाए । गयौ वीति इहि रीति एक संवतसर सारौ । उठ्यौ गगन लाँ गाजि भूप को सुजस-नगारी ॥ २८ ॥ तब तजि अचल समाधि प्राधि-हर संकर जागे । निज-जन-दुख मन आनि कसकि करुना सौं पागे ॥ आतुर चले उमंग-भरे भंगह नहि छानी। कृपा-कानि वरदान-देन-हित हिय हुलसानी ।। २९॥