यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अाराधी तुम यह सुनि मृदु मुसकाइ चतुर चतुरानन भाष्या । धन्य धन्य महि-पाल मही-हित पर चित राख्यौ । तुम्हें न कछुहुँ अदेय एक यह असमंजस पर । गंग-धार को वेग धरै किमि धरनि धरा-धर ॥ २० ॥ धमकि धूम सौं धाइ फँसै जबहीँ ब्रह्मद्रव । उथलपथल तल होइ रसातल मचहि उपद्रव ॥ जगत जलाहल होइ कुलाहल त्रिभुवन ब्यापै! है सनद्ध कटिबद्ध कौन थिरता फिरि थापै ॥ २१॥ ताते कहत उपाय एक अतिसय हितकारी। आसुतोष संकर त्रिपुरारी ॥ सो सब भाँति समर्थ अर्थ-दायक चित-चाहे । करत न नैंकु बिचार चार फल देत उमाहे ॥ २२ ॥ बिकल सकल जग जोहि छोहि करुना जिन धारी। निधरक धरि गर गरल सुरासुर-बिपति बिदारी॥ गर्ब खर्व करि सर्व कठिन कालहु दुर्दर का। चिर जीवन थिर कियौ मारकंडे मुनिबर का ॥ २३ ॥ सोइ इक सकत सँभारि गंग का बेग बिपुल बर । करि जु कृपा बर देहि लेहिँ यह काज सीस पर ॥ सकल मनोरथ होहिँ सिद्ध तब तुरत तिहारे । यौँ कहि विधि सब सुरनि सहित निज लोक सिधारे ॥ २४ ॥