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भई सभा सब दंग रंग ऐसा कछु माच्यौ । प्रेमानंद अमंद मनहु तहँ तन धरि नाच्या ।। सुनि वह गान-विधान लगे सुर सकल सराहन । ब्रह्मदेव हिय हुलसि बंक संकर-दिसि चाहन ॥ ३०॥ सिव सुजान तब उमगि डमकि डमरू सुख-पागे। रचि तांडव रस-भूमि जुगल-गुन गावन लागे । भरयौ भूरि आनंद हृदय तिहिं लगे उलीचन । पौन-पटल पर भव्य भाव अंतर के खीचन ॥ ३१॥ सकल कला के परम-धाम संकर अबिकारी। प्रभु-गुन-गान सुजान सभा अवसर मनहारी। सब संघट मिलि मंजु बँध्यौ इमि समौ सुहायो । भए देव-गन मुग्ध देह-अध्यास सिरायः ॥ ३२॥ इमि बाब्यौ आनंद-सिंधु सुधि-घुधि-लय-कारी । आपुहुँ है सिव मगन गान की सुरति बिसारी ॥ तब सब संज्ञा पाइ दीठि जो इत-उत फेरी । बिस्मय लह्यौ महान जुगल मूरति नहि हेरी ॥ ३३ ।। सिंहासन चहुँ पास अमल जल-रासि लखाई। गौर-स्याम-द्य ति-दाम ललित लहरनि छबि छाई ॥ है अति बिल बिकल लगे सुर सकल बिसूरन । आरत-नाद विषाद-बाद सौँ सब दिसि पूरन' ॥ ३४ ॥