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लखि देवनि की भीति प्रीति-जुत कयौ विधाता । धरहु धीर महि-पीर बेगि हरिहै जगत्राता ॥ सेाइ प्रभु करुना-पुंज मंजु महिषी यह जाकी । कपिल-रूप धरि धरत करत रच्छा नित याकी ॥ २० ॥ इहिँ विधि करत कुचाल जबै पाताल सिधैहैं। कपिल-कोप-बिकराल-ज्वाल साँ सब जरि जैहैं॥ भूमि-भेद का किया बेद आदिहिँ निर्धारन । सगर-कुमारनि-काज आज जारन का कारन ॥ २१ ॥ यह सुनि ढाढ़स पाइ ठाइ कछु देव ढिठाए । कपिलदेव-गुन-गान करत निज-निज गृह आए । इत नृप-सगर-कुमार रसातल चहुँ दिसि धाए । मिल्या पै न हय हारि पलटि पुनि पितु पहँ आए ।। २२ ॥ सादर सब सिर नाइ सकल बृत्तांत सुनायौ । पुनि पूछयौं अब होत कहा आयसु मन-भायौ ॥ सुनत विषम संबाद भूप टेढ़ी करि भौंहैं । मानि महा हित-हानि बचन वाले अनखाँहैं ॥ २३ ॥ महि नीचें हय-जोग ज्योतिसी-लोग बतावत । तो पुनि कारन कौन हेरि जो हाथ न आवत ॥ फिरि धरि धीर गंभीर खादि पाताल पधारौ । हय-हर्ता-जुत हेरि स्वकुल-कीरति बिस्तारौ ॥ २४ ॥