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द्वितीय सर्ग तब नृप गुरु-पद बंदि चंदसेखर उर धाए । जज्ञ पुरैबौ ठानि विज्ञ विज्ञ दैवज्ञ बुलाए ॥ पूजि जथाविधि असन बसन भूषन सौँ तोषे । दिए दच्छिना माहिँ लच्छ सुबरन पय-तोषे ॥१॥ बहुरि जोरि जुग पानि सानि मृदु रस बर वानी । स्यामकरन की हरन-व्यवस्था बिषम बखानी ॥ कियौ प्रस्न पुनि गयौ कहाँ वह अस्व हमारौ। हारे हेरि समस्त ब्यस्त महि-मंडल सारौ॥२॥ कढ़ी परति करबाल कोस सौं चमकि-चमकि कै। निकसे आवत बान तून सौं तमकि-तमकि कै॥ उठि-उठि कर रहि जात कसकि तिनके बाहन कौं। पैन लगति अरि-खोज ओज सौं उत्साहन कौँ ॥३॥ जोग लगन दिन नखत सोधि सब लगे बिचारन । रेखा अंक बँचाइ दीठि पाटी पर पारन ॥ करि-करि पृथक विचार मेलि सब सार निसार यौ । गनपति गिरा मनाइ नाइ• सिर बचन उचारचौ ॥४॥